डाॅ. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में निहित दलित अनुभव
Abstract
डाॅ. तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ दलित साहित्य की महत्वपूर्ण निधि है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े डाॅ. तुलसीराम ने अपने जीवन प्रारम्भिक दिनों में हुए भेदभाव को बड़े ही बेबाक तरीके से ‘मुर्दहिया’ में अंकित किया है। मुर्दहिया का ही अगला अंक ‘मणिकर्णिका’ के रूप में परिणत हुआ है। उन्होंने अत्यंत ही संतुलित, सुचिंतित, तार्किक एवं सर्जनात्मक ढंग से दलित जीवन की त्रासदी, भेदभाव, अत्याचार इत्यादि को मुर्दहिया के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। वे डाॅ. अम्बेदकर एवं ज्योतिबा फूले के विचारों से ओत-प्रोत तथा बौद्ध अध्ययन एवं कम्युनिष्ट विचारों से भी प्रभावित रहे हैं। इन सभी विचारों का प्रभाव अलग-अलग मुर्दहिया में देखने को मिलती है। परन्तु डाॅ. तुलसीराम किसी एक विचार के साथ बंध कर रहने वाले सख्सियतों में नहीं थे। उन्होंने अलहदा राह चुनी थी, जो मुर्दहिया एवं मणिकर्णिका में भारतीय साहित्य को प्राप्त हुई। इस शोध आलेख का मुख्य उद्देश्य मुर्दहिया में निहित दलित अनुभव को रेखांकित करना है।