भारतीय संविधान का विकास: एक वि‛लेेषणात्मक अध्ययन
Abstract
प्रत्येक दे‛ा का संविधान उसके दे‛ा-काल की आव‛यकताओं के अनुरूप तैयार किया जाता है। चूंकि प्रत्येक दे‛ा की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियाँ भिन्न-भिन्न होती है इसलिए संविधान निर्माण के समय उन सभी पक्षों को ॉाामिल किया जाता है। इस भिन्नता के कारण यह संभव है कि किसी दे‛ा में कोई व्यवस्था सफल हो तो वह अन्य दे‛ा में उसी स्वरूप में न सफल हो या उसे उसी रूप में लागू न किया जा सके। यदि हम देखें तो हमारे संविधान निर्माताओं में संविधान निर्माण के समय वि‛व के प्रचलित संविधानों का अध्ययन किया, और उन संविधानों के महत्वपूर्ण प्रावधानों को अपने दे‛ा की परिस्थितियों और आव‛यकताओं के अनुरूप ढालकर अपनाने पर जोर दिया है। जैसे हमारे दे‛ा में ब्रिटेन के संसदीय ॉाासन के साथ संघात्मक ॉाासन को अपनाया गया है। यहाँ यह स्पष्ट करना नितान्त आव‛यक है कि संसदीय के साथ एकात्मक ॉाासन न अपनाकर संघात्मक ॉाासन क्यों अपनाया गया है। चूंकि हमारे दे‛ा में भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलता पाई जाती है। इसलिए इनकी पहचान को बनाए रखने के लिए संघात्मक ॉाासन की स्थापना को महत्व प्रदान किया गया परन्तु संघात्मक ॉाासन में पृथक पहचान, पृथकतावाद को बढ़ावा न दे, इसके लिए एकात्मक ॉाासन के लक्षणों का भी समावे‛ा किया गया है, जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा न उत्पन्न हो क्योंकि आजादी के समय हमारा दे‛ा विभाजन के दुःखद अनुभव को झेल चुका था। किसी दे‛ा का संविधान उसकी राजनीतिक व्यवस्था का वह बुनियादी सांचा-ढांचा निर्धारित करता है जिसके अन्तर्गत उसकी जनता ॉाासित होती है। यह राज्य की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसे प्रमुख अंगों की स्थापना करता है, उनकी ॉाक्तियों की व्याख्या करता है, उनके दायित्वों का सीमांकन करता है और उनके पारस्परिक तथा जनता के साथ संबंधो का विनियमन करता है।