संस्कृत साहित्य में रीतिकाल के प्रवर्तक
Abstract
संस्कृत महाकाव्य की परम्परा तथा विकासक्रम का अनुशीलन करने से यह स्वतः स्पष्ट हो जाता है कि आदिकवि वाल्मीकि के रामायण काव्य में भावपक्ष का प्राधान्य है, भाषा या कलापक्ष की गौणता है। कालिदास से पूर्व तक यही प्रवृत्ति रही है। महाकवि कालिदास नये युग का प्रवर्तन करते हैं। उनमें भाषा एवं भाव दोनों का अद्भुत समन्वय है, दोनों प्रधान है। आलोचकों ने कालिदासयुग की कविता को ‘सुकुमार शैली’ की संज्ञा दी है। महाकवि भारवि के प्रादुर्भाव से एक नये युग का प्रवर्तन होता है। आलोचक भारवि और भारवियुग की कविता को ‘अलंकारशैली’ की संज्ञा देते हैं। आचार्य कुन्तक के शब्दों में यह ‘विचित्रमार्ग’ है। इसमें कविता रस या भाव प्रधान न होकर अलंकार या भाषा प्रधान हो जाती है। भारवि इस शैली का नेतृत्व करते हैं। इस पद्धति की काव्ययात्रा में परवर्ती माघ, भट्टि, श्रीहर्ष, आनन्दवर्धन आदि कवि सम्मिलित हुए।